Monday, December 17, 2012

सत्ता की जुगलबंदी





कैसी सोच अपनी है किधर हम जा रहें यारों 
गर कोई देखना चाहें बतन मेरे बो आ जाये  

तिजोरी में भरा धन है मुरझाया सा बचपन है 
ग़रीबी  भुखमरी में क्यों  जीबन बीतता जाये

ना करने का ही ज़ज्बा है ना बातों में ही दम दीखता 
हर एक दल में सत्ता की जुगलबंदी नजर आयें .

कभी बाटाँ धर्म ने है कभी  जाति में खो जाते 
क्यों हमारें रह्नुमाओं का, असर सब पर नजर आये  

ना खाने को ना पीने को ,ना दो पल चैन जीने को
ये जैसा तंत्र है यारों  , जल्दी से गुजर जाये 

 
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना 

9 comments:

  1. ना करने का ही ज़ज्बा है ना बातों में ही दम दीखता
    हर एक दल में सत्ता की जुगलबंदी नजर आयें .
    गजल है अपना ही अंदाज़ लिए .

    ना करने का ही ज़ज्बा है ना बातों में ही दम दीखता
    हर एक दल में सत्ता की जुगलबंदी नजर आयें .


    कैसी सोच अपनी है किधर हम जा रहें यारों .......(रहे यारों )
    गर कोई देखना चाहें बतन मेरे बो आ जाये ......चाहे , अनुनासिक नहीं हैं बिंदी

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    1. अनेकानेक धन्यवाद सकारात्मक टिप्पणी हेतु.

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  2. Bang on Madan ji, There is nothing left in this country to feel proud about. I hope darkness of this night gives way to a new sun.

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    1. प्रोत्साहन के लिए आपका हृदयसे आभार . सदैव मेरे ब्लौग आप का स्वागत है .

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  3. सुन्दर रचना भाई सक्सेना जी |

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    1. प्रोत्साहन के लिए आपका हृदयसे आभार . सदैव मेरे ब्लौग आप का स्वागत है .

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  4. शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का ,प्रासंगिक व्यंजना लिए गजल का .

    शीर्षक है इस ब्लॉग का :काव्य सरोवर

    वह या वो प्रयोग में लायें भाई साहब आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं .हमें मौक़ा देंगे तो हम शुद्ध रूप शब्दों का आपको बताते रहेंगे .बो प्रयोग बंद करें .बो बोली में प्रयुत होगा वो या वह भाषा में .

    चाहे शब्द अनुनासिक नहीं है इस पर बिंदी या चन्द्र बिंदु नहीं आयेगा .शुक्रिया .

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  5. सार्थक रचना ,हमारी संस्कृति हमें पलायनवादी होना नहीं सिखाती है बल्कि दृढ़ता से खड़ा होना सिखाती है !!

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    1. हृदयसे आभार . सदैव मेरे ब्लौग आप का स्वागत है .

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