Thursday, March 22, 2018

तन्हा रहता है भीतर से बाहर रिश्तों का मेला है

पैसोँ की ललक देखो दिन कैसे दिखाती है
उधर माँ बाप तन्हा हैं इधर बेटा अकेला है

रुपये पैसोँ की कीमत को वह ही जान सकता है
बचपन में गरीवी का जिसने दंश झेला है

अपने थे ,समय भी था ,समय वह और था यारों
समय पर भी नहीं अपने बस मजबूरी का रेला है

हर इन्सां की दुनियाँ में इक जैसी कहानी है
तन्हा रहता है भीतर से बाहर रिश्तों का मेला है

समय अच्छा बुरा होता ,नहीं हैं दोष इंसान का
बहुत मुश्किल है ये कहना किसने खेल खेला है

जियो ऐसे कि हर इक पल मानो आख़िरी पल है
आये भी अकेले थे और जाना भी अकेला है

तन्हा रहता है भीतर से बाहर रिश्तों का मेला है

मदन मोहन सक्सेना

Tuesday, March 13, 2018

हर इन्सान की दुनिया में इक जैसी कहानी है





हर लम्हा तन्हाई का एहसास मुझको होता है
जबकि दोस्तों के बीच अपनी गुज़री जिंदगानी है

क्यों अपने जिस्म में केवल ,रंगत खून की दिखती
औरों का लहू बहता , तो सबके लिए पानी है

खुद को भूल जाने की ग़लती सबने कर दी है
हर इन्सान की दुनिया में इक जैसी कहानी है

दौलत के नशे में जो अब दिन को रात कहतें हैं
हर गलती की कीमत भी, यहीं उनको चुकानी है

मदन ,वक़्त की रफ़्तार का कुछ भी भरोसा है नहीं
किसको जीत मिल जाये, किसको हार पानी है

सल्तनत ख्वाबों की मिल जाये तो अपने लिए बेहतर है
दौलत आज है तो क्या , आखिर कल तो जानी है

हर इन्सान की दुनिया में इक जैसी कहानी है
मदन मोहन सक्सेना

Tuesday, March 6, 2018

समय ये आ गया कैसा कि मिलता अब समय ना है






दीवारें ही दीवारें नहीं दीखते अब घर यारों
बड़े शहरों के हालात कैसे आज बदले है.

उलझन आज दिल में है कैसी आज मुश्किल है
समय बदला, जगह बदली क्यों रिश्तें आज बदले हैं

जिसे देखो बही क्यों आज मायूसी में रहता है
दुश्मन दोस्त रंग अपना, समय पर आज बदले हैं

जीवन के सफ़र में जो पाया है सहेजा है
खोया है उसी की चाह में ,ये दिल क्यों मचले है

समय ये आ गया कैसा कि मिलता अब समय ना है
रिश्तों को निभाने के अब हालात बदले हैं


समय ये आ गया कैसा कि मिलता अब समय ना है


मदन मोहन सक्सेना