Wednesday, September 9, 2015

मेरी पोस्ट रंग बदलती दूनियाँ देखी आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में





मेरी पोस्ट रंग बदलती दूनियाँ देखी आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में




प्रिय   मित्रों मुझे बताते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि मेरी पोस्ट रंग बदलती दूनियाँ देखी आपका ब्लॉग ए बी पी न्यूज़ में शामिल की गयी है।  आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएं।


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रंग बदलती दूनियाँ



सपनीली दुनियाँ मेँ यारों सपनें खूब मचलते देखे
रंग बदलती दूनियाँ देखी ,खुद को रंग बदलते देखा

सुबिधाभोगी को तो मैनें एक जगह पर जमते देख़ा
भूखों और गरीबोँ को तो दर दर मैनें चलते देखा

देखा हर मौसम में मैनें अपने बच्चों को कठिनाई में
मैनें टॉमी डॉगी शेरू को, खाते देखा पलते देखा

पैसों की ताकत के आगे गिरता हुआ जमीर मिला
कितना काम जरुरी हो पर उसको मैने टलते देखा

रिश्तें नातें प्यार की बातें ,इनको खूब सिसकते देखा
नए ज़माने के इस पल मेँ अपनों को भी छलते देखा

मदन मोहन सक्सेना

Sunday, September 6, 2015

अब तो आ कान्हा जाओ



अब तो आ कान्हा  जाओ, इस धरती पर सब त्रस्त हुए 
दुःख सहने को भक्त तुम्हारे आज सभी अभिशप्त हुए
नन्द दुलारे कृष्ण कन्हैया  ,अब भक्त पुकारे आ जाओ 
प्रभु दुष्टों का संहार करो और  प्यार सिखाने आ जाओ 











अर्थ का अनर्थ
 
एक रोज हम यूँ ही बृन्दावन गये
भगबान कृष्ण हमें बहां मिल गये
भगवान बोले ,बेटा मदन क्या हाल है ?
हमने कहा दुआ है ,सब मालामाल हैं

कुछ देर बाद हमने ,एक सवाल कर दिया
भगवान बोले तुमने तो बबाल कर दिया
सवाल सुन करके बो कुछ लगे सोचने
मालूम चला ,लगे कुछ बह खोजने

हमने उनसे कहा ,ऐसा तुमने क्या किया ?
जिसकी बजह से इतना नाम कर लिया
कल तुमने जो किया था ,बह ही आज हम कर रहे
फिर क्यों लोग , हममें तुममें भेद कर रहे

भगवान बोले प्रेम ,कर्म का उपदेश दिया हमनें
युद्ध में भी अर्जुन को सन्देश दिया हमनें
जब कभी अपनों ने हमें दिल से है पुकारा
हर मदद की उनकी ,दुष्टों को भी संहारा

मैनें उनसे कहा सुनिए ,हम कैसे काम करते है
करता काम कोई है ,हम अपना नाम करते हैं
देखकर के दूसरों की माँ बहनों को ,हम अपना बनाने की सोचा करते
इसी दिशा में सदा कर्म किया है,  कल क्या होगा  ,ये ना सोचा करते

माता पिता मित्र सखा आये कोई भी
किसी भी तरह हम डराया करते
साम दाम दण्डं भेद किसी भी तरह
रूठने से उनको मनाया करते

बात जब फिर भी नहीं है बनती
कर्म कुछ ज्यादा हम किया करतें
सजा दुष्टों को हरदम मिलती रहे
ये सोचकर कष्ट हम दिया करते 

मार काट लूट पाट हत्या राहजनी
अपनें हैं जो ,मर्जी हो बो करें
कहना तो अपना सदा से ये है
पुलिस के दंडें से फिर क्यों डरे

धोखे से जब कभी बे पकड़े गए
पल भर में ही उनको छुटाया करते
जब अपनें है बे फिर कष्ट क्यों हो
पल भर में ही कष्ट हम मिटाया करते

ये सुनकर के भगबान कहने लगे
क्या लोग दुनियां में इतना सहने लगे
बेटा तुने तो अर्थ का अनर्थ कर दिया
ऐसे कर्मों से जीवन अपना ब्यर्थ कर दिया 

तुमसे कह रहा हूँ मैं हे पापी मदन
पाप अच्छे कर्मों से तुमको डिगाया करेंगें
दुष्कर्मों के कारण हे पापी मदन
हम तुम जैसों को फिर से मिटाया करेंगें 



मदन मोहन सक्सेना

Friday, August 28, 2015

राखी त्यौहार और हम





 
 राखी त्यौहार और हम 


राखी का त्यौहार आ ही गया ,इस  त्यौहार को मनाने  के लिए या कहिये की मुनाफा कमाने के लिए समाज के सभी बर्गों ने कमर कस ली है। हिन्दुस्थान में राखी की परम्परा काफी पुरानी है . बदले दौर में जब सभी मूल्यों का हास हो रहा हो तो भला राखी का त्यौहार इससे अछुता कैसे रह सकता है। मुझे अभी भी  याद है जब मैं छोटा था और राखी के दिन ना जाने कहाँ से साल भर ना दिखने बाली तथाकथित  मुहबोली बहनें अबतरित  हो जातीं थी  एक मिठाई का पीस और राखी देकर मेरे माँ बाबु से जबरदस्ती मनमाने रुपये बसूल कर ले जाती थीं। खैर जैसे जैसे समझ बड़ी बाकि लोगों से राखी बंधबाना बंद कर दी। जब तक घर पर रहा राखी बहनों से बंधबाता  रहा ,पैसों का इंतजाम पापा करते थे  मिठाई बहनें लाती थीं।अब  दूर रहकर राखी बहनें पोस्ट से भेज देती हैं कभी कभी मिठाई के लिए कुछ रुपये भी साथ रख देती हैं।यदि अबकाश होता है तो ज़रा अच्छे से मना लेते है। पोस्ट ऑफिस जाकर पैसों को भेजने की ब्यबस्था  करके ही अपने कर्तब्यों की इतिश्री  कर लेते हैं। राखी को छोड़कर पूरे साल मुझे याद भी रहता है की मेरी बहनें कैसी है या उनको भी मेरी कुछ खबर  रखने की इच्छा रहती है ,कहना बहुत  मुश्किल है . ये हालत कैसे बने या इसका जिम्मेदार कौन है काफी मगज मारी करने पर भी कोई एक राय बनती नहीं दीखती . कभी लगता है ये समय का असर है कभी लगता है सभी अपने अपने दायरों में कैद होकर रह गए हैं। पैसे की कमी , इच्छाशक्ति में कमी , आरामतलबी की आदत और प्रतिदिन के सँघर्ष ने रिश्तों को खोखला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।  
अपना अपना राग लिए सब अपने अपने घेरे में 
हर इंसान की एक कहानी सबकी ऐसे गुजर गयी 


उलझन आज दिल में है कैसी आज मुश्किल है
समय बदला, जगह बदली क्यों रिश्तें आज बदले हैं


पर्व और त्यौहारों के देश कहे जाने वाले अपने देश में  कई ऐसे त्यौहार हैं  लेकिन इन सभी में राखी एक ऐसा पर्व है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को और अधिक मजबूत और सौहार्दपूर्ण बनाए रखने का एक बेहतरीन जरिया सिद्ध हुआ है। राखी को  बहनें अपने भाई की कलाई पर राखी बांधते हुए उसकी लंबे और खुशहाल जीवन की प्रार्थना करती हैं वहीं भाई ताउम्र अपनी बहन की रक्षा करने और हर दुख में उसकी सहायता करने का वचन देते हैं।

अब जब पारिवारिक रिश्तों का स्वरूप भी अब बदलता जा रहा है  भाई-बहन को ही ले लीजिए, दोनों में झगड़ा ही अधिक  होता है और  वे एक-दूसरे की तकलीफों को समझते कम हैं ।आज  वे अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करते  ज्यादा  मिलते है लेकिन जब भाई को अपनी बहन की या बहन को अपनी भाई की जरूरत होती है तो वह मौजूद रहें ऐसी सम्भाबना कम होती जा रही है.

सामाजिक व्यवस्था और पारिवारिक जरूरतों के कारण आज बहुत से भाई अपनी बहन के साथ ज्यादा समय नहीं बिता पाते ऐसे में रक्षाबंधन का दिन उन्हें फिर से एक बाद निकट लाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। लेकिन  बढ़तीं महंगाई , रिश्तों के खोखलेपन और समय की कमी की बजह से  बहुत कम भाई ही अपनी बहन के पास राखी बँधबाने  जा पाते हों . सभी रिश्तों की तरह भाई बहन का रिश्ता भी पहले जैसा नहीं रहा लेकिन राखी का पर्ब  हम सबको सोचने के लिए मजबूर तो करता ही है कि  सिर्फ उपहार और पैसों से किसी भी रिश्तें में जान नहीं डाली जा सकती राखी के परब के माध्यम से भाई बहनों को एक दुसरे की जरूरतों को समझना होगा और एक दुसरे की  दशा  को समझते हुए उनकी भाबनाओं  की क़द्र करके राखी की महत्ता को पहचानना होगा। अंत में मैं अपनी बात इन शब्दों से ख़त्म करना चाहूगां .

 
मनाएं हम तरीकें से तो रोशन ये चमन होगा
सारी दुनियां से प्यारा और न्यारा  ये बतन होगा
धरा अपनी ,गगन अपनाजो बासी  बो भी अपने हैं 
हकीकत में बे बदलेंगें ,दिलों में जो भी सपने हैं



मदन मोहन सक्सेना








Friday, August 14, 2015

आजादी देश और हम



 आजादी देश और हम 



 आजादी देश और हम

कल आजादी का पर्ब है
सरकारी अमला जोर शोर से तैयारी कर रहा है
स्कूल के बच्चे और टीचर अपने तरह से जुटे हुए हैं
आजादी का पर्ब मनाने के लिए
कुछ लोग छुट्टी जाकर
लॉन्ग वीकेंड को मनाने को लेकर उत्साहित हैं
छोटी मुनिया , छोटू
ये सोच कर बहु खुश है कि
पेपर और प्लास्टिक के झंडे से अधिक पैसे मिलेंगें
सोसाइटी ऑफिस के लोग
देश भक्ति से युक्त गानो की सी डी और ऑडियो को खोजने में ब्यस्त हैं
कि पुरे दिन इन गानो के बजाना होगा
बच्चे लोग इस बात से खुश है कि
कल स्कूल में पढ़ाई नहीं होगी
ढेर सारा मजा और  मिठाई अलग से मिलेगी
लेकिन
भारत  काका इस बात से खिन्न हैं
कि अपनी पूरी जिंदगी सेना में खपाने के बाद भी
सरकार उनकी सुध लेने को तैयार नहीं है (एक रैंक एक पेंशन)
अपनी आँख और खूबसूरती खो चुकी
भारती ये सोचकर परेशान है कि
आधी आबादी को जीने का बराबरी का हक़ कब मिलेगा
और मिलेगा भी या नहीं
कुछ आशाबादी लोग
अब भी इस आशा में है कि
कल प्रधानमंत्री शायद
कुछ ऐसा कर दें कि
उनकी जिंदगी में अच्छे दिन आ जाये
और बे भी
आजाद भारत
के
आजाद नागरिक के रूप में
अपना जीबन
बेहतर ढंग से जी सकें


१५ अगस्त की हार्दिक शुभकामनायें


मदन मोहन सक्सेना

Friday, August 7, 2015

तुम और मैं







तुम और मैं 
मैं और तुम 
हम दोनों ने सफलतापूर्वक एक संसार का सृजन किया है 
जिसमें 
आशाएँ हैं 
कल्पनायें हैं 
स्नेह है 
परस्पर सम्मान ,सूझबूझ  है 
अपने इस अनोखे प्यारे संसार 
के हम दोनों
प्यार करने बाले पक्षी जैसे हैं 
जो प्रतिबद्ध और उत्सुक है 
अपने प्रेम , भाबनाएं और सुख दुःख 
साझा करने के लिए 
जब तक इस शरीर में जान है. 

मदन मोहन सक्सेना 
 


Thursday, July 30, 2015

आँख मिचौली













जब से मैंने गाँव क्या छोड़ा
शहर में ठिकाना खोजा
पता नहीं आजकल
हर कोई मुझसे
आँख मिचौली का खेल क्यों खेला  करता है
जिसकी जब जरुरत होती है
गायब मिलता है
और जब जिसे नहीं होना चाहियें
जबरदस्ती कब्ज़ा जमा लेता है
कल की ही बात है
मेरी बहुत दिनों के बात उससे मुलाकात हुयी
सोचा गिले शिक्बे दूर कर लूं
पहले गाँव में तो उससे रोज का मिलना जुलना था
जबसे इधर क्या आया
या कहिये कि मुंबई जैसे महानगर की 

दीबारों के बीच आकर फँस गया
पूछा
क्या बात है
आजकल आती नहीं हो इधर।
पहले तो आंगन भर-भर आती थी।
दादी की तरह छत पर पसरी रहती थी हमेशा।
पड़ोसियों ने अपनी इमारतों की दीवार क्या ऊँची की
तुम तो इधर का रास्ता ही भूल गयी।
अक्सर सुबह देखता हूं
पड़ी रहती हो
आजकल उनके छज्जों पर
हमारी छत तो अब तुम्हें सुहाती ही नहीं ना
लेकिन याद रखो
ऊँची इमारतों के ऊँचे लोग
बड़ी सादगी से लूटते हैं
फिर चाहे वो इज्जत हो या दौलत।
महीनों के  बाद मिली हो
इसलिए सारी शिकायतें सुना डाली
उसने कुछ बोला नहीं
बस हवा में खुशबु घोल कर
खिड़की के पीछे चली गई
सोचा कि उसे पकड़कर आगोश में भर लूँ
धत्त तेरी की
फिर गायब
ये महानगर की धूप भी न
बिलकुल तुम पर गई है
हमेशा आँख मिचौली का खेल खेल करती है
और मैं न जाने क्या क्या सोचने लग गया 

उसके बारे में 
महानगर के बारे में 
और 
जिंदगी के बारे में


 मदन मोहन सक्सेना

Tuesday, June 23, 2015

जागरण जंक्शन में मेरी पोस्ट बारिश के रंग , मुंबई के संग




 जागरण जंक्शन में मेरी पोस्ट बारिश के रंग , मुंबई के संग


प्रिय मित्रों मुझे ये बताते हुए बाहर हर्ष हो रहा है कि मेरी पोस्ट बारिश के रंग , मुंबई के संग को जागरण जंक्शन में शामिल किया गया है।
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बारिश के रंग , मुंबई के संग


हर बार की तरह
इस बार भी इंद्र देव
मुंबई पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो गए
जीब जंतु पशु पक्षी की प्यास
लम्बे अंतराल के बाद शांत हो गयी
तालाब पोखर झील फूल कर
अपने भाग्य पर इतराने लगे
मुंबई बालों को पाने पीने के लिए
अब कटौती नहीं सहन करनी पड़ेगी
हर बार की तरह
इस बार भी लोगो को परेशानी झेलनी पड़ी
कुछ लोग ट्रेन और रस्ते में फँस गए
मुंबई के कुछ आधुनिक इलाकें
हिंदमाता , अंधेरी ,दादर ,परेल , कुर्ला
हर बार की तरह इस बार भी पानी में डूबने लगे
हर बार की तरह में उस दिन
मीडिया बाले चर्चा करके
टी आर पी बटोरने लगे
हर बार की तरह इस बार भी
जो लोग घर पर रहे चटकारे लेकर
ख़बरों का आनंद लेने लगे कि बो बच गए परेशानी से
हर बार की तरह इस बार भी
बी एम सी के लोग
अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने की कोशिश करते दिखे
आमची मुंबई के लोग भी
हर बार की तरह परेशान दिखे
करते तो क्या करते
स्थानीय लोगों की पार्टी का ही कब्ज़ा है
बी एम सी पर
काफी समय से
नाराज हों बो भी अपनों से
चलो इस बार कुछ नहीं बोलते हैं
शायद अगले साल
कुछ सुधार देखने को मिले
अगले दिनों का इन्तजार करने लगें



मदन मोहन सक्सेना

Friday, June 19, 2015

समय के इस दौर में

समय के इस दौर में



जब समय ही समय था 
समय जानने के लिए घड़ी नहीं थी 
आज समय जानने के लिए 
मोबाइल ,घड़ी क्या क्या नहीं है 
किन्तु  क्या दौर है 
माँ बाप के पास बच्चों के लिए समय नहीं है 
और बच्चों के लिए माँ बाप के लिए समय नहीं है 
सब अपने अपने घेरे में कैद हैं
सब अपने अपने तरीके से 
समय की कमी से जूझ रहें हैं 
साथ ही साथ बोर भी हो रहें हैं 
हर कोई एकांतबास   से रुबरु हो रहा है 
समय के इस दौर में



मदन मोहन सक्सेना

Saturday, June 13, 2015

अपनापन

अपनापन


अक्सर पास  रहकर के ना अपनापन नजर आता
सुना है दूर रहने पर  अपने याद आते हैं

मदन मोहन सक्सेना

Friday, June 5, 2015

मैगी , मम्मी और मजबूर बच्चें ( बाजार की चाल )


 मैगी , मम्मी और मजबूर बच्चें ( बाजार की चाल  )


कितना अजीब लगता है जब 
सचिन तेंदुलकर हमें बताते हैं की हमारे बच्चों को कौन सा खाना खाना चाहियें 
अमिताभ बच्चन दो मिनट की मैगी की पैरबी करते नजर आतें हैं 
सलमान खान कोल्ड ड्रिंक पीने  के लिए बच्चों को प्रेरित करते नजर आते हैं 
हमारे बच्चे इन के पीछे छिपे खेल को नहीं समझ पाते 
और सितारों की बातों में आ जाते हैं 
कितना अच्छा हो की ये सितारे 
पैसों की भूख के सामने 
देश के बच्चों के स्वास्थ्य को ज्यादा महत्तब देते 
तो आज ये हालत देश को ना देखना होता 
कहतें हैं ना की हम हिंदुस्तानी लोग भेड़ चल बाले हैं।  
बाराबंकी में एक सैंपल में मैगी में कुछ गलत पाया गया ,
देखते ही देखते मैगी का मामला सारे मीडिया पर छा  गया 
 कुछ राज्य सरकारें जल्दी सक्रिय हो गयीं। 
 लेकिन लगता है की किसी भी स्तर पर समाज के महत्वपूर्ण लोगों ने 
अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया.
 मैगी पकाना और खाना आधुनिकता का हिस्सा बन गई. 
बड़े-बुजुर्ग भी स्वाद आजमाने लगे. 
चना, चबैना, सत्तू पिछड़ेपन की निशानी हो गए. 
फिल्म व खेल जगत के लोकप्रिय चेहरों में 
क्या एक बार भी यह विचार नहीं आया कि वह अपनी तरफ से इन खाद्य पदार्थो के सेवन की बच्चों को प्रेरणा न दें.
बहुत संभव था कि इतने नामी चेहरे मैगी का विज्ञापन न करते तो इसे इतनी लोकप्रियता ना मिलती.
तब किसी ने इसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री पर विचार नहीं किया. 
अब पता चल रहा है कि मैगी बनाने वाली कंपनी नेस्ले पर खाद्य सुरक्षा मानकों की अनदेखी का आरोप लगाया गया है
 यहां खाद्य विभाग के जिम्मेदार अधिकारी भी आरोप के घेरे में हैं.
 इतने वर्षो से मैगी की धूम थी
 लेकिन एक भी अधिकारी ने इसके खाद्य मानकों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी.
 मैगी के नमूनों में इतने वर्ष बाद खुलासा हुआ 
 कि मोनोसोडियम ब्लूटामेट और सीसे की मात्रा तय सीमा से 17 गुना ज्यादा थी.
इस मामले में कौन कितना दोषी है, यह तो जांच के बाद पता चलेगा.
 मामला अब न्यायपालिका में है. 
लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि किसी भी स्तर पर
 समाज के महत्वपूर्ण लोगों ने 
अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया. 
इसके विज्ञापन की शुरुआत बस दो मिनट से हुई थी. 
मतलब इसे मात्र दो मिनट में पकाकर बच्चों के सामने परोसा जा सकता है. 
आधुनिक माताएं भी खुश, बच्चे भी खुश. 
इस खुशी में स्वास्थ्य की बात पीछे छूट गई.
मैगी आधुनिक जीवनशैली की एक प्रतीक बन गई थी.
 इसके प्रत्येक पहलू में आधुनिकता की छाप थी. 
 इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इससे समाज 
खासतौर पर बच्चों के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है.
 इसका विज्ञापन करने वालों की मानसिकता भी इससे ऊपर नहीं रही.
केवल धन मिलता रहे, फिर चाहे जिस वस्तु का विज्ञापन करा लो.
 इन लोगों को समाज के कारण ही लोकप्रियता मिली, 
जिसके चलते इन्हें विज्ञापन के लिये उपयुक्त माना गया, लेकिन उसी समाज के प्रति इनका दायित्वबोध क्या था.
अमिताभ बच्चन हो, या माधुरी दीक्षित अथवा कोई और, 
आज इन लोगों का कहना है 
कि उन्होंने नेस्ले के भरोसे पर विज्ञापन किया था. 
तकनीकी रूप से ये बातें इनका बचाव कर सकती है.
 लेकिन नैतिकता के पक्ष पर इनका बचाव नहीं हो सकता.
 जिस विषय का वह विशेषज्ञ न हो, उसका विज्ञापन वह कैसे कर सकता है.
अमिताभ और माधुरी ने कभी 'खाद्य-विज्ञान' का अध्ययन नहीं किया होगा
 ऐसे में ये किसी खाद्य सामग्री के विज्ञापन को कैसे कर सकते हैं.
 लेकिन फिर भी ऐसा होता है. 
जिस विषय से कोई लेना देना नहीं,
 उसके विज्ञापन के लिए भी नामी चेहरे फौरन तत्पर हो जाते हैं. 
समाज हित पर निजी हित भारी होने के कारण ही ऐसा होता है.
वह मैगी या किसी तेल को अपने जीवन की सफलता का श्रेय दे सकते हैं,
लेकिन बच्चों को उचित खान-पान की सही शिक्षा नहीं दे सकते.

खासतौर पर खाद्य पदार्थो के बारे में तो कोई विशेषज्ञ ही बता सकता है
 लेकिन उसके लिए भी फिल्म और क्रिकेट के सितारे तैयार रहते हैं.
 इनकी एक भी बात तर्कसंगत नहीं होती.
साफ लगता है कि पूरी उछल-कूद केवल पैसों के लिए की जा रही है.
इनके विज्ञापनों पर विश्वास करें तो मानना पड़ेगा कि फास्ट फूड सम्पूर्ण पोषण है
लेकिन चिकित्सा विज्ञान इससे सहमत नहीं.
सीलिए धनी परिवार के बच्चे भी कुपोषण के शिकार होते हैं.
मैगी मामला निश्चित ही आंख खोलने वाला साबित हो सकता है.
उन वस्तुओं का उत्पादन न किया जाए
 जिन वस्तुओं की प्रमाणिक जानकारी न हो,
उसका विज्ञापन न किया जाए.
वहीं यह अभिभावकों की जिम्मेदारी है
 कि वह अपने बच्चों को उचित खान-पान के लिए प्रेरित करें.

मदन मोहन सक्सेना