अंतर्मन की बेदना
परिबर्तन संसार का नियम है
ज्यों समय बदलता है ,मौसम बदलता है
बचपन जबानी में और जबानी बृद्धा अबस्था में
तब्दील हो जाती है
समय के चक्र के साथ
अपने बेगाने में रूपान्तरित हो जाते हैं
अजबनी अपनेपन का अहसास करातें हैं
कभी दुनिया पराई ब जालिम लगती है
तो कभी रंगीनियों का साक्षात् प्रतिबिम्ब नजर आती है
समय के इस चक्र में फँसा हुआ
मैं अपने को पहचानने के लिए
खुद से संपर्क स्थापित करना चाहता हूँ
इसलिये दिन में दो बार
और कभी कभी उससे अधिक बार
आइनें में खुद को निहारता रहता हूँ
जब मैनें खुद को सतही तौर पर
जाननें की कोशिश की
मैं खुद के अंत: सागर में तैरने लगता हूँ
जब खुद को गहराई से जानने की
तो असीम बिस्तार बाले अन्तासागर के गर्त में
खुद को डूबा हुआ सा पाता हूँ
अक्सर मेरे साथ ये होता है
जो कहना चाहता हूँ ,बह कह नहीं पाता हूँ
और जो कहता हूँ ,बह कहा मेरा नहीं लगता है
मैं जो हूँ ,क्या बह नहीं हूँ
और जो मैं नहीं हूँ ,क्या मैं बह हूँ
ये विचार मेरे अंतर्मन में गूंजता रहता है
अपने अंतर्मन की बेदना को अभिब्यक्त
करने के लिए मैंने लेखनी का कागज से स्पर्श किया
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
परिबर्तन संसार का नियम है
ज्यों समय बदलता है ,मौसम बदलता है
बचपन जबानी में और जबानी बृद्धा अबस्था में
तब्दील हो जाती है
समय के चक्र के साथ
अपने बेगाने में रूपान्तरित हो जाते हैं
अजबनी अपनेपन का अहसास करातें हैं
कभी दुनिया पराई ब जालिम लगती है
तो कभी रंगीनियों का साक्षात् प्रतिबिम्ब नजर आती है
समय के इस चक्र में फँसा हुआ
मैं अपने को पहचानने के लिए
खुद से संपर्क स्थापित करना चाहता हूँ
इसलिये दिन में दो बार
और कभी कभी उससे अधिक बार
आइनें में खुद को निहारता रहता हूँ
जब मैनें खुद को सतही तौर पर
जाननें की कोशिश की
मैं खुद के अंत: सागर में तैरने लगता हूँ
जब खुद को गहराई से जानने की
तो असीम बिस्तार बाले अन्तासागर के गर्त में
खुद को डूबा हुआ सा पाता हूँ
अक्सर मेरे साथ ये होता है
जो कहना चाहता हूँ ,बह कह नहीं पाता हूँ
और जो कहता हूँ ,बह कहा मेरा नहीं लगता है
मैं जो हूँ ,क्या बह नहीं हूँ
और जो मैं नहीं हूँ ,क्या मैं बह हूँ
ये विचार मेरे अंतर्मन में गूंजता रहता है
अपने अंतर्मन की बेदना को अभिब्यक्त
करने के लिए मैंने लेखनी का कागज से स्पर्श किया
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना