मैगी , मम्मी और मजबूर बच्चें ( बाजार की चाल )
कितना अजीब लगता है जब
सचिन तेंदुलकर हमें बताते हैं की हमारे बच्चों को कौन सा खाना खाना चाहियें
अमिताभ बच्चन दो मिनट की मैगी की पैरबी करते नजर आतें हैं
सलमान खान कोल्ड ड्रिंक पीने के लिए बच्चों को प्रेरित करते नजर आते हैं
हमारे बच्चे इन के पीछे छिपे खेल को नहीं समझ पाते
और सितारों की बातों में आ जाते हैं
कितना अच्छा हो की ये सितारे
पैसों की भूख के सामने
देश के बच्चों के स्वास्थ्य को ज्यादा महत्तब देते
तो आज ये हालत देश को ना देखना होता
कहतें हैं ना की हम हिंदुस्तानी लोग भेड़ चल बाले हैं।
बाराबंकी में एक सैंपल में मैगी में कुछ गलत पाया गया ,
देखते ही देखते मैगी का मामला सारे मीडिया पर छा गया
कुछ राज्य सरकारें जल्दी सक्रिय हो गयीं।
लेकिन लगता है की किसी भी स्तर पर समाज के महत्वपूर्ण लोगों ने
अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया.
मैगी पकाना और खाना आधुनिकता का हिस्सा बन गई.
बड़े-बुजुर्ग भी स्वाद आजमाने लगे.
चना, चबैना, सत्तू पिछड़ेपन की निशानी हो गए.
फिल्म व खेल जगत के लोकप्रिय
चेहरों में
क्या एक बार भी यह विचार नहीं आया कि वह अपनी तरफ से इन खाद्य पदार्थो के सेवन की बच्चों को प्रेरणा न
दें.
बहुत संभव था कि इतने नामी
चेहरे मैगी का विज्ञापन न करते तो इसे इतनी लोकप्रियता ना मिलती.
तब किसी ने इसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री पर विचार
नहीं किया.
अब पता चल रहा है कि मैगी बनाने वाली कंपनी नेस्ले पर खाद्य सुरक्षा मानकों की अनदेखी का आरोप लगाया गया है
यहां
खाद्य विभाग के जिम्मेदार अधिकारी भी आरोप के घेरे में हैं.
इतने वर्षो से मैगी की धूम थी
लेकिन एक भी अधिकारी ने
इसके खाद्य मानकों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी.
मैगी के नमूनों में इतने वर्ष बाद खुलासा हुआ
कि मोनोसोडियम ब्लूटामेट और सीसे की मात्रा तय सीमा से 17 गुना ज्यादा
थी.
इस मामले में कौन कितना दोषी है, यह तो जांच के बाद पता चलेगा.
मामला अब न्यायपालिका में है.
लेकिन यह तो
मानना पड़ेगा कि किसी भी स्तर पर
समाज के महत्वपूर्ण लोगों ने
अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया.
इसके विज्ञापन की
शुरुआत बस दो मिनट से हुई थी.
मतलब इसे मात्र दो मिनट में पकाकर बच्चों के सामने परोसा जा सकता है.
आधुनिक
माताएं भी खुश, बच्चे भी खुश.
इस खुशी में स्वास्थ्य की बात पीछे छूट गई.
मैगी आधुनिक जीवनशैली की एक प्रतीक बन गई थी.
इसके प्रत्येक पहलू में आधुनिकता की छाप थी.
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इससे समाज
खासतौर पर
बच्चों के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है.
इसका विज्ञापन करने वालों की मानसिकता भी इससे ऊपर नहीं रही.
केवल धन मिलता रहे, फिर चाहे जिस वस्तु का विज्ञापन करा लो.
इन लोगों को समाज के कारण ही लोकप्रियता मिली,
जिसके चलते इन्हें विज्ञापन के लिये उपयुक्त माना गया, लेकिन उसी समाज के प्रति इनका दायित्वबोध क्या था.
अमिताभ बच्चन हो, या माधुरी दीक्षित अथवा कोई और,
आज इन लोगों का कहना है
कि उन्होंने नेस्ले के भरोसे पर विज्ञापन
किया था.
तकनीकी रूप से ये बातें इनका बचाव कर सकती है.
लेकिन नैतिकता के पक्ष पर इनका बचाव नहीं हो सकता.
जिस विषय का वह विशेषज्ञ न हो, उसका
विज्ञापन वह कैसे कर सकता है.
अमिताभ और माधुरी ने कभी 'खाद्य-विज्ञान' का अध्ययन नहीं किया होगा
ऐसे में ये किसी खाद्य सामग्री के विज्ञापन को
कैसे कर सकते हैं.
लेकिन फिर भी ऐसा होता है.
जिस विषय से कोई लेना देना नहीं,
उसके विज्ञापन के लिए भी नामी चेहरे
फौरन तत्पर हो जाते हैं.
समाज हित पर निजी हित भारी होने के कारण ही ऐसा होता है.
वह मैगी या किसी तेल को अपने जीवन की सफलता का श्रेय दे सकते हैं,
लेकिन बच्चों को उचित खान-पान की सही
शिक्षा नहीं दे सकते.
खासतौर पर खाद्य पदार्थो के बारे में तो कोई विशेषज्ञ ही बता सकता है
लेकिन उसके लिए भी फिल्म और क्रिकेट के सितारे
तैयार रहते हैं.
इनकी एक भी बात तर्कसंगत नहीं होती.
साफ लगता है कि पूरी उछल-कूद केवल पैसों के लिए की जा रही है.
इनके विज्ञापनों पर विश्वास करें तो मानना पड़ेगा कि फास्ट फूड सम्पूर्ण पोषण है
लेकिन चिकित्सा विज्ञान इससे सहमत नहीं.
सीलिए धनी परिवार के बच्चे भी कुपोषण के शिकार होते हैं.
मैगी
मामला निश्चित ही आंख खोलने वाला साबित हो सकता है.
उन वस्तुओं का उत्पादन न किया जाए
जिन वस्तुओं की प्रमाणिक जानकारी न हो,
उसका विज्ञापन न किया जाए.
वहीं यह
अभिभावकों की जिम्मेदारी है
कि वह अपने बच्चों को उचित खान-पान के लिए प्रेरित करें.
मदन मोहन सक्सेना