Friday, August 2, 2013

सफ़र जिंदगी का



















बीती उम्र कुछ इस तरह कि खुद से हम न मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है



कल तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक शख्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है


इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
ये बक्त की साजिश है या फिर बक्त का एहसान है

 
गर कहोगें दिन को दिन तो लोग जानेगें गुनाह
अब आज के इस दौर में दिखते नहीं इन्सान है

 
गैर बनकर पेश आते, बक्त पर अपने ही लोग
अपनो की पहचान करना अब नहीं आसान है

 
प्यासा पथिक और पास में बहता समुन्द्र देखकर
जिंदगी क्या है मदन , कुछ कुछ हुयी पहचान है



 

मदन मोहन सक्सेना

6 comments:

  1. क्या बात है भाई जी-
    मुबारकां

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  2. प्रिय मदन मोहन सक्सेना जी
    आपके ब्लॉग को सरसरी नजर से पढ़ा/देखा. अपने कवि-मन की आप अभिव्यक्ति अच्छे ढंग से करते नजर आतें हैं. लिखते रहिये,
    और शब्दों के माध्यम से मिलते रहिये.
    -अरुण
    (अरुण खाडिलकर)

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  3. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (12.08.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .
    कल तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
    इक शख्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है
    अच्छी ग़ज़ल ..:)

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  4. बहुत सुन्दर बाव अभिव्यक्ति ... बधाई..

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  5. Your way of writing & expressing your views is just inimitable...... kudos
    plz visit my online magazine and blog :
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  6. sundar rachnaye
    bhawon ki angin ladi lagane wali
    sarthak prastuti

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