बीती उम्र कुछ इस तरह कि खुद से हम न मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है
कल तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक शख्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है
इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
ये बक्त की साजिश है या फिर बक्त का एहसान है
गर कहोगें दिन को दिन तो लोग जानेगें गुनाह
अब आज के इस दौर में दिखते नहीं इन्सान है
गैर बनकर पेश आते, बक्त पर अपने ही लोग
अपनो की पहचान करना अब नहीं आसान है
प्यासा पथिक और पास में बहता समुन्द्र देखकर
जिंदगी क्या है मदन , कुछ कुछ हुयी पहचान है
मदन मोहन सक्सेना
क्या बात है भाई जी-
ReplyDeleteमुबारकां
प्रिय मदन मोहन सक्सेना जी
ReplyDeleteआपके ब्लॉग को सरसरी नजर से पढ़ा/देखा. अपने कवि-मन की आप अभिव्यक्ति अच्छे ढंग से करते नजर आतें हैं. लिखते रहिये,
और शब्दों के माध्यम से मिलते रहिये.
-अरुण
(अरुण खाडिलकर)
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (12.08.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .
ReplyDeleteकल तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक शख्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है
अच्छी ग़ज़ल ..:)
बहुत सुन्दर बाव अभिव्यक्ति ... बधाई..
ReplyDeleteYour way of writing & expressing your views is just inimitable...... kudos
ReplyDeleteplz visit my online magazine and blog :
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sundar rachnaye
ReplyDeletebhawon ki angin ladi lagane wali
sarthak prastuti