Thursday, July 19, 2012

ग़ज़ल

 

 

 

  

आगमन नए दौर का आप जिसको कह रहे
बो सेक्स की रंगीनियों की पैर में जंजीर है

सुन चुके है बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
हर रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है

खून से खेली है होली आज के इस दौर में
कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है

मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी
ये ब्यथा अपनी नहीं हर एक की ये पीर है

आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
प्रशं लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है

चाँद रुपयों की बदौलत बेचकर हर चीज को
आज हम आबाज देते की बेचना जमीर है 



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

 

4 comments:

  1. बहुत पसन्द आया
    हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद

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  2. आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
    प्रशं लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है

    बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!
    शुभकामनायें.

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  3. उत्कृष्ट विचारों को लेखनीबद्ध किया है|
    बेहतरीन अभिव्यक्ति ||

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  4. आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
    प्रशं लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है

    बहुत सुन्दर शव्दों से सजी है आपकी गजल ,उम्दा पंक्तियाँ ..

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