Tuesday, August 9, 2016

बीती उम्र कुछ इस तरह कि खुद से हम ना मिल सके

  




कल  तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक शख्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है

बीती उम्र कुछ इस तरह कि खुद से हम ना मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अनजान है

गर कहोगें दिन  को दिन तो लोग जानेगें गुनाह 
अब आज के इस दौर में दीखते कहाँ  इन्सान है

इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
ये वक़्त की साजिश है या फिर वक़्त का एहसान है

क्यों गैर बनकर पेश आते वक़्त पर अपने ही लोग
अब अपनों की पहचान करना अब नहीं आसान है 

प्यासा पथिक और पास में बहता समुन्द्र देखकर 
जिंदगी क्या है मदन , कुछ कुछ हुयी पहचान है 
  
बीती उम्र कुछ इस तरह कि खुद से हम ना मिल सके

मदन मोहन सक्सेना

Friday, July 29, 2016

मेरी पोस्ट (जब से मैंने गाँव क्या छोड़ा ) जागरण जंक्शन में प्रकाशित)


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी पोस्ट ,(जब से मैंने गाँव क्या छोड़ा ) जागरण जंक्शन में प्रकाशित हुयी है , बहुत बहुत आभार जागरण जंक्शन टीम। आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .




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 जब से मैंने गाँव क्या छोड़ा
शहर में ठिकाना खोजा
पता नहीं आजकल
हर कोई मुझसे
आँख मिचौली का खेल क्यों खेला करता है
जिसकी जब जरुरत होती है
गायब मिलता है
और जब जिसे नहीं होना चाहियें
जबरदस्ती कब्ज़ा जमा लेता है
कल की ही बात है
मेरी बहुत दिनों के बात उससे मुलाकात हुयी
सोचा गिले शिक्बे दूर कर लूं
पहले गाँव में तो उससे रोज का मिलना जुलना था
जबसे इधर क्या आया
या कहिये कि मुंबई जैसे महानगर की
दीबारों के बीच आकर फँस गया
पूछा
क्या बात है
आजकल आती नहीं हो इधर।
पहले तो आंगन भर-भर आती थी।
दादी की तरह छत पर पसरी रहती थी हमेशा।
पड़ोसियों ने अपनी इमारतों की दीवार क्या ऊँची की
तुम तो इधर का रास्ता ही भूल गयी।
अक्सर सुबह देखता हूं
पड़ी रहती हो
आजकल उनके छज्जों पर
हमारी छत तो अब तुम्हें सुहाती ही नहीं ना
लेकिन याद रखो
ऊँची इमारतों के ऊँचे लोग
बड़ी सादगी से लूटते हैं
फिर चाहे वो इज्जत हो या दौलत।
महीनों के बाद मिली हो
इसलिए सारी शिकायतें सुना डाली
उसने कुछ बोला नहीं
बस हवा में खुशबु घोल कर
खिड़की के पीछे चली गई
सोचा कि उसे पकड़कर आगोश में भर लूँ
धत्त तेरी की
फिर गायब
ये महानगर की धूप भी न
बिलकुल तुम पर गई है
हमेशा आँख मिचौली का खेल खेल करती है
और मैं न जाने क्या क्या सोचने लग गया
उसके बारे में
महानगर के बारे में
और
जिंदगी के बारे में

जब से मैंने गाँव क्या छोड़ा

मेरी पोस्ट  (जब से मैंने गाँव क्या छोड़ा ) जागरण जंक्शन में प्रकाशित)



मदन मोहन सक्सेना
 

Thursday, July 28, 2016

आज हम फिर बँट गए ज्यों गड्डियां हो तास की


 



नरक की अंतिम जमीं तक गिर चुके हैं  आज जो
नापने को कह रहे , हमसे बह दूरियाँ आकाश की

आज हम महफूज है क्यों दुश्मनों के बीच में
आती नहीं है रास अब दोस्ती बहुत ज्यादा पास की

बँट  गयी सारी जमी ,फिर बँट  गया ये आसमान
आज  हम फिर  बँट गए ज्यों गड्डियां हो तास की

हर जगह महफ़िल सजी पर दर्द भी मिल जायेगा
अब हर कोई कहने लगा है  आरजू बनवास की

मौत के साये में जीती चार पल की जिंदगी
क्या मदन ये सारी दुनिया, है बिरोधाभास की

 

आज  हम फिर  बँट गए ज्यों गड्डियां हो तास की

मदन मोहन सक्सेना 

Monday, July 25, 2016

सांसों के जनाजें को तो सब ने जिंदगी जाना








देखा जब नहीं उनको और हमने गीत ना  गाया
जमाना हमसे ये बोला की फागुन क्यों नहीं आया

फागुन गुम हुआ कैसे ,क्या   तुमको कुछ चला मालूम
कहा हमने ज़माने से कि हमको कुछ नहीं मालूम

पाकर के जिसे दिल में  ,हुए हम खुद से बेगाने
उनका पास न आना ,ये हमसे तुम जरा पुछो

बसेरा जिनकी सूरत का हमेशा आँख में रहता
उनका न नजर आना, ये हमसे तुम जरा पूछो

जीवित है तो जीने का मजा सब लोग ले सकते
जीवित रहके, मरने का मजा हमसे जरा पूछो

रोशन है जहाँ   सारा मुहब्बत की बदौलत ही
अँधेरा दिन में दिख जाना ,ये हमसे तुम जरा पूछो

खुदा की बंदगी करके  मन्नत पूरी सब करते
इबादत में सजा पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो

तमन्ना  सबकी रहती है  जन्नत उनको मिल जाए
जन्नत रस ना आना ये हमसे तुम जरा पूछो

सांसों के जनाजें को  तो सब  ने जिंदगी जाना
दो पल की जिंदगी पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो


सांसों के जनाजें को  तो सब  ने जिंदगी जाना

मदन मोहन सक्सेना 


Thursday, July 21, 2016

गज़ल (तुमने उस तरीके से संभारा भी नहीं होगा)

                            
तुम्हारी याद जब आती तो मिल जाती ख़ुशी हमको
तुमको पास पायेंगे तो मेरा हाल क्या होगा

तुमसे दूर रह करके तुम्हारी याद आती है
मेरे पास तुम होगें तो यादों का फिर क्या होगा

तुम्हारी मोहनी सूरत तो हर पल आँख में रहती
दिल में जो बसी सूरत उस सूरत का फिर क्या होगा

अपनी हर ख़ुशी हमको अकेली ही लगा करती
तुम्हार साथ जब होगा नजारा ही नया होगा

दिल में जो बसी सूरत सजायेंगे उसे हम यूँ
तुमने उस तरीके से संभारा भी नहीं होगा


गज़ल (तुमने उस तरीके से संभारा भी नहीं होगा)
मदन मोहन सक्सेना

Wednesday, July 20, 2016

बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था




जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था

बारीकी जमाने की, समझने में उम्र गुज़री
भोले भाले चेहरे में सयानापन समाता था

मिलते हाथ हैं लेकिन दिल मिलते नहीं यारों
मिलाकर हाथ, पीछे से मुझको मार जाता था

सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
बचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था

उधर माँ बाप तन्हा थे इधर बेटा अकेला था
पैसे की ललक देखो दिन कैसे दिखाता था

जिसे देखे हुआ अर्सा , उसका हाल जब पूछा
बाकी ठीक है कहकर वह ताना मार जाता था



मदन मोहन सक्सेना

Wednesday, July 13, 2016

मुहब्बत को बयाँ करना किसके यार बश में है






 मुसीबत यार अच्छी है पता तो यार चलता है
कैसे कौन कब कितना,  रंग अपना बदलता है

किसकी कुर्बानी को किसने याद रक्खा है दुनिया में
जलता तेल और बाती है कहते दीपक जलता है

मुहब्बत को बयाँ करना किसके यार बश में है
उसकी यादों का दिया अपने दिल में यार जलता है

बैसे जीवन के सफर में तो कितने लोग मिलते हैं
किसी चेहरे पे अपना  दिल  अभी भी तो मचलता है

समय के साथ बहने का मजा कुछ और है यारों
रिश्तें भी बदल जाते समय जब भी बदलता है

मुसीबत यार अच्छी है पता तो यार चलता है
कैसे कौन कब कितना,  रंग अपना बदलता है


मुहब्बत को बयाँ करना किसके यार बश में है 

 मदन मोहन सक्सेना




Saturday, June 11, 2016

ये दीवानगी अपनी नहीं तो और फिर क्या है


हम आज तक खामोश हैं  और वो भी कुछ कहते नहीं
दर्द के नग्मों  में हक़ बस मेरा नजर आता है 


देकर दुआएँ  आज फिर हम पर सितम वो  कर गए
अब क़यामत में उम्मीदों का सवेरा नजर आता है


क्यों रोशनी के खेल में अपना आस का पँछी  जला
हमें अँधेरे में हिफाज़त का बसेरा नजर आता है


इस कदर अनजान हैं  हम आज अपने हाल से
हकीकत में भी ख्वावों का घेरा नजर आता है 


ये दीवानगी अपनी नहीं तो और  फिर क्या है मदन
हर जगह इक शख्श का मुझे  चेहरा नजर आता है



मदन मोहन सक्सेना

Saturday, May 7, 2016

मातृदिवस पर शुभकामनाएं

मातृदिवस पर शुभकामनाएं

बदलते बक्त में मुझको दिखे बदले हुए चेहरे
माँ का एक सा चेहरा , मेरे मन में पसर जाता

नहीं देखा खुदा को है ना ईश्वर से मिला मैं हुँ
मुझे माँ के ही चेहरे मेँ खुदा यारों नजर आता

मुश्किल से निकल आता, करता याद जब माँ को
माँ कितनी दूर हो फ़िर भी दुआओं में असर आता

उम्र गुजरी ,जहाँ देखा, लिया है स्वाद बहुतेरा
माँ के हाथ का खाना ही मेरे मन में उतर पाता

खुदा तो आ नहीं सकता ,हर एक के तो बचपन में
माँ की पूज ममता से अपना जीबन , ये संभर जाता

जो माँ की कद्र ना करते ,नहीं अहसास उनको है
क्या खोया है जीबन में, समय उनका ठहर जाता

Thursday, May 5, 2016

पानी पॉलिटिक्स और प्रीमियर लीग






वो तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का 
और महाराष्ट्र हाई कोर्ट का 
जिसकी बजह से
सूखाग्रस्त प्रदेश से 
लीग का आयोजन बाहर चला गया
बरना मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन और आई पी एल  ने तो 
पूरी बेशर्मी से अपने कुतर्को को सामने रखने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। 
झूठे बादे किये गए थे 
यदि आयोजन यहाँ हो रहा होता तो 
प्यासे ,सूखा ग्रस्त लोगों के हिस्से का पानी 
पेप्सी और कोक के इशारों पर नाचने बाले 
तथाकथित खिलाड़ियों के पैरों तले रौंदने बाली घास को
हरा  भरा रखने में खर्च हो रहा होता 
और आम जनता 
ये सब देखने को बिबश रहती
मराठी होते हुए भी गावस्कर और बेंगसर्कर को
जितनी फिक्र क्रिकेट को बचाने की है 
उतनी चिंता प्यासे ,सूखा ग्रस्त लोगों की नहीं है 
ये समझ से परे  है। 
भले ही राजीब शुक्ल का ताल्लुक कांग्रेस से हो 
अनुराग ठाकुर का सम्बन्ध भारतीय जनता पार्टी से हो 
और  शरद पवार राष्ट्रिय कांग्रेस पार्टी से हों 
पर 
क्रिकेट की भलाई के लिए सब एक मत हैं। 



 पानी पॉलिटिक्स और प्रीमियर लीग 

मदन मोहन सक्सेना