Tuesday, August 20, 2013

हे ईश्वर






























हे ईश्वर 
आखिर तू ऐसा क्यूँ करता है ?
अशिक्षित ,गरीब ,सरल लोग 
तो अपनी ब्यथा सुनाने के लिए 
तुझसे मिलने के लिए ही आ रहे थे 
बे सुनाते भी तो भला किस को 
आखिर कौन उनकी सुनता ?
और सुनता भी 
तो कौन उनके कष्टों को दूर करता ?
उन्हें बिश्बास  था कि तू तो रहम करेगा 
किन्तु 
सुनने की बात तो दूर 
बह लोग बोलने के लायक ही नहीं रहे 
जिसमें औरतें ,बच्चें और कांवड़िए भी शामिल थे 
जो कात्यायनी मंदिर में जल चढ़ाने जा रहे थे
क्योंकि उनका बिश्बास था कि 
सावन का आखिरी सोमवार होने से  शिब अधिक प्रसन्न होंगें। 
कभी केदार नाथ में तूने सीधे सच्चें  लोगों का इम्तहान लिया 
क्योंकि उनका बिश्बास था कि चार धाम की यात्रा करने से 
उनके सभी कष्टों का निबारण हो जायेगा।
और कभी कुम्भ मेले में सब्र की परीक्षा ली 
क्योंकि उनका बिश्बास था कि गंगा में डुबकी लगाने से 
उनके पापों की गठरी का बोझ कम होगा 
उनको  क्या पता था कि
भक्त और भगबान के बीच का रास्ता 
इतना काँटों भरा होगा 
हे इश्वर 
आखिर तू ऐसा क्यों करता है। 
उन्हें  क्या पता था कि 
जीबन के कष्ट  से मुक्ति पाने के लिए 
ईश्वर  के दर पर जाने की बजाय 
आज के समय में 
चापलूसी , भ्रष्टाचार ,धूर्तता का होना ज्यादा फायदेमंद है 
सत्य और इमानदारी की राह पर चलने बाले की 
या तो नरेन्द्र दाभोलकर की तरह हत्या कर दी जाती है 
या फिर दुर्गा नागपाल की तरह 
बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। 

हे ईश्वर 
आखिर तू ऐसा क्यों करता है।



प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना 

Wednesday, August 7, 2013

फिर एक बार आखिर कब तक

फिर एक बार 
सीमा का अतिक्रमण 
फिर एक बार पड़ोसी  देश की कायराना हरकत 
फिर एक बार हमारे सैनिकों की  शहादत 
फिर से पक्ष बिपक्ष का हंगामा 
फिर से आँकड़ों की बाजीगरी का खेल 
फिर से एक बार 
घटना की निंदा करने बाले बयानों की बहार 
फिर से 
भारत माता के सच्चे पुत्र की मौत 
यानि 
माता  पिता का पुत्र खोना 
बेटी का पिता खोना 
बहन का भाई खोना 
पत्नी का सब कुछ खोना 
फिर एक बार जिंदगी की कीमत मुआबजे से लगाना 
फिर एक बार 
आखिर कब तक

प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना 


Friday, August 2, 2013

सफ़र जिंदगी का



















बीती उम्र कुछ इस तरह कि खुद से हम न मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है



कल तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक शख्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है


इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
ये बक्त की साजिश है या फिर बक्त का एहसान है

 
गर कहोगें दिन को दिन तो लोग जानेगें गुनाह
अब आज के इस दौर में दिखते नहीं इन्सान है

 
गैर बनकर पेश आते, बक्त पर अपने ही लोग
अपनो की पहचान करना अब नहीं आसान है

 
प्यासा पथिक और पास में बहता समुन्द्र देखकर
जिंदगी क्या है मदन , कुछ कुछ हुयी पहचान है



 

मदन मोहन सक्सेना

Monday, July 29, 2013

अंतर्मन की बेदना

अंतर्मन की बेदना 

परिबर्तन संसार का नियम है 
ज्यों समय बदलता है ,मौसम बदलता है 
बचपन जबानी में और जबानी बृद्धा अबस्था में 
तब्दील हो जाती है 
समय के चक्र के साथ 
अपने बेगाने में रूपान्तरित हो जाते हैं 
अजबनी अपनेपन का अहसास करातें हैं 
कभी दुनिया  पराई ब जालिम लगती है
तो कभी रंगीनियों का साक्षात्  प्रतिबिम्ब नजर आती है 
समय के इस चक्र में फँसा हुआ 
मैं अपने को पहचानने के लिए 
खुद से संपर्क स्थापित करना चाहता हूँ 
इसलिये दिन में दो बार 
और कभी कभी उससे अधिक बार 
आइनें में खुद को निहारता रहता हूँ 
जब मैनें खुद को सतही तौर  पर
जाननें की कोशिश की 
मैं खुद के अंत: सागर में तैरने लगता हूँ 
जब खुद को गहराई से जानने की 
तो असीम बिस्तार बाले अन्तासागर के गर्त में 
खुद को डूबा हुआ सा पाता हूँ 
अक्सर मेरे साथ ये होता है 
जो कहना चाहता हूँ ,बह कह नहीं पाता हूँ 
और जो कहता हूँ ,बह कहा मेरा नहीं लगता है 
मैं जो हूँ ,क्या बह नहीं हूँ 
और जो मैं नहीं हूँ ,क्या  मैं बह  हूँ
ये विचार मेरे अंतर्मन में गूंजता रहता है 
अपने अंतर्मन की बेदना को अभिब्यक्त 
करने के लिए मैंने लेखनी का कागज से स्पर्श  किया


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना